जलं जलेन सृजति जलं पाति जलेन यः।
हरेज्जलं जलेनैव तं कृष्णं भज सन्ततम्।।
उस दिव्य जल की हम अभ्यर्थना करते है, जो अन्तरिक्ष के लिए हवि प्रदान करता है तथा जहां हमारी इन्द्रियाँ तृप्त होती है
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